30.12.08

" महाभारत "

जीवन के चक्रावियु में फँस गया हूँ ,
न में हूँ कोई अभिमन्यु ,
न मिली मुझे कोई उत्तरा,
न मिली मुझे कोई अर्जुन ,
बचा हुआ है जो ,
वो है केवल मेरा आत्मविश्वास ।
रथ मेरा बिना सारथि के है ,
दिशा हीन पथ भर्स्ट सा ,
मानो एक अज्ञात मंजिल की ओर ,
बढता चला जा रहा हूँ मैं ,
हाँ अब शुरू हो गई है महाभारत ।
जीत तो हमेशा पञ्च पांडव की होती है ।
जी हाँ मेरी अपनी पञ्च इन्द्रियां बाकि हैं ।
बाकि है थोड़ा अताम्विश्वास ,
बाकि है अभी थोड़ा सत्य ,
और अभी थोड़ा पराक्रम बाकि है ।
रथ मेरा पथ विचलित है तो क्या ?
में तो पथ विचलित नही,
आशा बाकि है अभी " कृष्ण " के मिलने की ,
और मुझे तो ये भी मालूम है ।
" " कर्मण्य वाधिकारस्ते माँ फल्येशु कदाचन ""
करम ही तो कर रहा हूँ ।
मेने फल की आशा त्याग दी है ।

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